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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है

नारी जाति की परवशता, निस्सहाय अवस्था, आर्थिक एवं शैक्षिक परतंत्रता, अर्थात् नारी दुर्दशा पर आज के हिन्दी साहित्य में जितनी मुखर चर्चा हो रही है; बीसवीं सदी के प्रारंभिक चरण में, गहरी जीवन दृष्टि और संवेदनशील सामाजिक सरोकार के रचनाकार, कथासम्राट प्रेमचंद (१८८०-१९३६) के यहाँ कहीं इससे ज्यादा मुखर थी। नारी जीवन की समस्याओं के साथ समाज के धर्माचार्यों, मठाधीशों, धनपतियों, सुधारकों के आडंबर, दंभ, ढोंग, पाखंड, चरित्रहीनता, दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह, पुलिस की घूसखोरी, वेश्यागमन, मनुष्य के दोहरे चरित्र, सांप्रदायिक द्वेष आदि आदि सामाजिक विकृतियों के घृणित विवरणों से भरा उपन्यास सेवासदन (१९१६) आज भी समकालीन और प्रासंगिक बना हुआ है।

इन तमाम विकृतियों के साथ-साथ यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है। अतिरिक्त सुखभोग की अपेक्षा में अपना सर्वस्व गंवा लेने के बाद जब कथानायिका को सामाजिक गुणसूत्रों की समझ हो जाती है, तब वह किसी तरह दुनिया के प्रति उदार हो जाती है और उसका पति साधु बनकर अपने व्यतीत दुष्कर्मों का प्रायश्चित करने लगता है, जमींदारी अहंकार में डूबे दंपति अपनी तीसरी पीढ़ी की संतान के जन्म से प्रसन्न होते हैं, और अपनी सारी कटुताओं को भूल जाते हैं–ये सारी स्थितियां उपन्यास की कथाभूमि में इस तरह पिरोई हुई हैं कि तत्कालीन समाज की सभी अच्छाइयों बुराइयों का जीवंत चित्र सामने आ जाता है। हर दृष्टि से यह उपन्यास एक धरोहर है।

सेवासदन

पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराइयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचन्द्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पच्चीस वर्ष हो गए, लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने नहीं दिया था। यौवनकाल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है, उन्होंने निस्पृह भाव से अपना कर्तव्य पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी स्त्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिंता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि जीवन-भर की सच्चरित्रता बिल्कुल व्यर्थ तो नहीं हो गई।

दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन पुरुष थे। मातहतों के साथ वह भाईचारे का-सा व्यवहार करते थे किंतु मातहतों की दृष्टि में उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहां हमारा पेट नहीं भरता, हम उनकी भलमनसी को लेकर क्या करें– चाटें? हमें घुड़की, डांट-डपट, सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटियां चांदी के थाल में परोसी जाएं वे पूरियाँ न हो जाएंगी।

दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते, तो उनका बड़ा आदर– सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अरदली खूब दावतें उड़ाते। अहलमद को नजराना मिलता, अरदली इनाम पाता और अफसरों को नित्य डालियां मिलती थीं, पर कृण्णचन्द्र के यहाँ यह आदर-सत्कार कहां? वह न दावतें करते थे, न डालियां ही लगाते थे। जो किसी से लेता नहीं, वह किसी को देगा कहां से? दारोगा कृष्णचन्द्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।

लेकिन इतना निर्लोभ होने पर भी दारोगाजी के स्वभाव में किफायत का नाम न था। वह स्वयं तो शौकीन न थे, लेकिन अपने घरवालों को आराम देना अपना कर्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्राणी और थे : स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगाजी इन लड़कियों को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य तरह-तरह की चीजें मंगाया करते। बाजार में कोई तहदार कपड़ा देखकर उनका जी नहीं मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियों, मेजों और आलमारियों से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झाँसी के कालीन, आगरे की दरियां बाजार में नजर आ जातीं, तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भाँति न टूटता होगा। लड़कियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होंने एक ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी वे स्वयं उनकी परीक्षा लिया करते थे।

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